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मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of psychology) REET SPECIAL

मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of psychology)

“ मनोविज्ञान व्यवहार तथा सामाजिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन है|” - एटकिंसन, स्मिथ व हिलगार्ड मनोविज्ञान को अंग्रेजी में” साइकोलोजी” कहते हैं| साइकोलोजी शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के दो शब्दों साइकी तथा लोगों से मिलकर हुई है|
साइकि का अर्थ है- आत्मा, लोगस का अर्थ हैं- अध्ययन| अर्थात साइकोलॉजी शब्द का शाब्दिक अर्थ है- आत्मा का अध्ययन
| मनोविज्ञान का प्रारंभ अरस्तु के समय में दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में हुआ था धीरे धीरे यह दर्शनशास्त्र से अलग होकर एक स्वतंत्र विषय के रूप में उभरकर सामने आया| दर्शनशास्त्र से एक अलग विषय के रूप में अपने इस यात्रा में मनोविज्ञान को अनेक अर्थ में परिभाषित किया गया |

१ आत्मा का विज्ञान- प्लेटो, अरस्तु

नए मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान के रूप में स्वीकार किया था| मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान 16 शताब्दी मैं स्वीकार किया गया|

2 मन या मस्तिष्क का विज्ञान-

17 शताब्दी में दार्शनिकों ने मनोविज्ञान को मन या मस्तिष्क का विज्ञान कहा|
मनिया मस्तिष्क का विज्ञान के आने वाले मुख्य दार्शनिक पान्पोनाजी थे|

३ चेतना का विज्ञान-

मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान 19वी शताब्दी में माना गया| चेतना का विज्ञान मानने वाले मुख्य मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स, विलियम वुंट, जेम्स सली थे|
मैक्डूगल ने अपनी पुस्तक आउटलाइन साइकोलोजी के पृष्ठ संख्या 16 पर चेतना को एक बुरा शब्द बताकर उसकी आलोचना करते हुए लिखा है- “ चेतना एक बहुत बुरा शब्द है और यह मनोविज्ञान के लिए बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि यह शब्द साधारण प्रयोग में आ गया है|”

4 व्यवहार एवं अनुभूति का विज्ञान-

आत्मा, मन और चेतना के विज्ञान के रुप में मान्यता न मिलने पर बीसवीं शताब्दी में मनोविज्ञान को व्यवहार के विज्ञान के रुप में परिभाषित किया गया जिसे सब ने स्वीकार किया| व्यवहार का विज्ञान मानने वाले मुख्य मनोवैज्ञानिक वाटसन, स्किनर व वुदवर्थ थे|

मनोविज्ञान की परिभाषाएं

“ मनोविज्ञान जीवधारी तथा वातावरण की पारस्परिक अंत: क्रिया से संबंधित विज्ञान है”- वारेन
“मनोविज्ञान, मानव व्यवहार एवं मानव संबंधों का अध्ययन है”- क्रो एवं क्रो
“ मनोविज्ञान आचरण एवं व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है|” -मैक्दुगल

अभिप्रेरणा (Motivation)

प्रेरणा शब्द लैटिन भाषा के “मौटम” शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- motor तथा motion इसके अनुसार प्रेरणा में गति होना अनिवार्य है|
मनोवैज्ञानिक क्रेच तथा क्रेचफील्ड के अनुसार प्रेरणा हमारे ‘क्यों’ का उत्तर देती हैं|
हम किसी से क्यों प्यार करते हैं?
हम किसी से क्यों घृणा करते हैं?
तारे दिन में क्यों दिखाई नहीं देते हैं?

शिक्षा एक जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है अर्थात क्रिया है|
किसी भी क्रिया के पीछे एक बल कार्य करता है जिसे हम प्रेरक बल कहते हैं| उसी प्रकार शिक्षा प्राप्त करने की प्रक्रिया में कार्य करने वाला बल अभिप्रेरणा है|

प्रेरकों का वर्गीकरण(Classification of motives)

आंतरिक अभिप्रेरक

जिन्हें हम व्यक्तिगत, जैविक, प्राथमिक, जन्मजात अभिप्रेरक आदि भी कहते हैं
| भूख,प्यास,आराम,नींद,प्यार,क्रोध,सेक्स,मल-मूत्र त्याग आदि|

बाह्य अभिप्रेरक

जिन्हें हम सामाजिक,मनोवैज्ञानिक,द्वितीयक,अर्जित अभिप्रेरक कहते हैं|
सुरक्षा,प्रदर्शन,जिज्ञासा,सामाजिकता,ज्ञान
प्रेरक= आवश्यकता+ चालक+ प्रोत्साहन

आवश्यकता ( need)

यह हमारे शरीर की कोई जरूरत या अभाव है जिसके उत्पन्न होने पर हम शारीरिक असंतुलन या तनाव महसूस करते हैं|
जैसे-भूख लगने पर खाने की आवश्यकता|
बीमार पड़ने पर दवा की आवश्यकता|
अकेले रहने पर साथी की आवश्यकता|
थक जाने पर आराम की आवश्यकता|
“आवश्यकता प्राणी की वहां आंतरिक अवस्था है जो किसी उद्दीपन हो अथवा लक्ष्यों के संबंध में जीवो का क्षेत्र संगठित करती हैं और उन की प्राप्ति हेतु क्रिया उत्पन्न करती हैं |”

चालक/अंतर्नोद/प्रणोदन ( drive)

प्रत्येक आवश्यकता से जुड़ा हुआ एक चालाक होता है|
जैसे- खाने की आवश्यकता से भूख,
पानी की आवश्यकता से प्यास|
जब तक चालक शांत नहीं हो जाता तब तक हम तनाव में रहते हैं|

उद्दीपन/प्रोत्साहन(Incentive)

प्रोत्साहन वातावरण में उपस्थित तत्व है जो हमारे चालक को शांत कर देते हैं|
जैसे- प्यास लगने पर जीव तालाब,झरना,नदी-नाले का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाता है|
“उद्दीपन वह वस्तु परिस्थितियां अथवा प्रक्रिया है जो व्यवहार को उत्तेजना प्रदान करती हैं उसे जारी रखती हैं तथा उसे दिशा देती हैं|”
वास्तव में आवश्यकता चालक एवं उद्दीपन में घनिष्ठ संबंध है|
आवश्यकता चालको को जन्म देती हैं| चालक एक तनावपूर्ण स्थिति हैं तथा व्यवहार को एक निश्चित दिशा और रूप प्रदान करती हैं|
उद्दीपन द्वारा आवश्यकता की पूर्ति होती हैं| आवश्यकता की पूर्ति होने के पश्चात चालक समाप्त हो जाते हैं|
थॉमसन के अनुसार अभिप्रेरिक दो

प्रकार के होते हैं- 1 स्वाभाविक 2 कृत्रिम
मैस्लो के अनुसार अभिप्रेरक दो प्रकार के होते हैं- 1 जन्मजात 2 अर्जित
गैरेट के अनुसार अभिप्रेरक तीन प्रकार के होते हैं- 1 जैविक 2 मनोवैज्ञानिक 3 सामाजिक

अभिप्रेरणा के प्रकार(Type of motivation)

1 आंतरिक अभिप्रेरणा

जब व्यक्ति स्वयं से प्रेरित होकर कार्य करता है तो इसे यांत्रिक या सकारात्मक अभिप्रेरणा कहते हैं|

2 बाह्य अभिप्रेरणा

जब व्यक्ति स्वयं से प्रेरित ना होकर किसी बाहर के व्यक्ति के द्वारा प्रेरित करने पर कार्य करता है तो इसे बाह्य या नकारात्मक अभिप्रेरणा कहते हैं|
अभिप्रेरणा के सिद्धांत

1 मूल प्रवृत्यात्मक सिद्धांत

सर्वप्रथम विलियम मैक्डूगल ने मनुष्य और जीव जंतुओं के व्यवहार की व्याख्या करने के लिए मूल प्रवृत्यात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन किया था|
विलियम मैक्डूगल को मूल प्रवृत्ति का जनक माना जाता है|
विलियम मैक्डूगल ने 14 मूल प्रवृत्तियां बताई है और प्रत्येक मूल प्रवृत्ति से जुड़ा हुआ एक संवेग होता है|
संवेग उत्पन्न होने पर जो क्रिया होती हैं उसे मूल प्रवृत्ति कहते हैं|

मुख्य संवेग(14)

भय ----- पलायन
क्रोध ----- युयुत्सा
भूख ----- भोजनान्वेषण
घृणा ----- प्रियता
वात्सल्य ----- पुत्र कामना
कष्ट ----- संवेदना
आश्चर्य ----- जिज्ञासा
कामुक्ता ----- काम
आत्महीनता ----- विनीत भाव
आत्माभिमान ----- आत्म प्रदर्शन
एकाकीपन ----- सामूहिकता
अधिकार भावना ----- संग्रह
रचना अनुभूति ----- रचना प्रवृत्ति
आमोद ----- हास्य

मूल प्रवृत्ति की विशेषताएं

मूल प्रवृत्तियां सार्वभौमिक होती हैं|
मूल प्रवृत्तियां जन्मजात होती हैं|
मूल प्रवृत्तियां आदतों से भिन्न होती हैं|
मूल प्रवृतियों में 3 क्रियायें शामिल होती हैं ज्ञानात्मक, भावात्मक व क्रियात्मक|
मूल प्रवृत्तियां व्यक्ति को क्रिया करने के लिए प्रेरित करती हैं|
मूल प्रति व्यक्ति के व्यवहार को संचालित करती हैं|
मूल प्रवृतियों की मात्रा सभी व्यक्तियों में समान नहीं होती हैं|
मूल प्रवृत्तियां परिवर्तनशील होती हैं|

2 मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार और चेतन में अमित इच्छाएं व्यक्ति को क्रिया करने के लिए प्रेरित करती हैं|

3 उपलब्धि अभिप्रेरणा सिद्धांत

इस सिद्धांत का प्रतिपादन डेविस मैकलीलैंड के द्वारा किया गया| इनके सहयोगी एटकिंसन व होयेन्गा
डेविस नकली लैंड हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक थे|
इस सिद्धांत में श्रेष्ठता से विशेष स्तर को प्राप्त करने की इच्छा को बताया गया है|
इसमें व्यक्ति वहां तक पहुंचने की चाह रखता है जहां तक प्रयासों के द्वारा पहुंचा जा सकता है|
इस सिद्धांत में चाह व्यक्ति को क्रिया करने के लिए प्रेरित करती हैं|

4 आवश्यकता- पदानुक्रमिक सिद्धांत

इस सिद्धांत के प्रवर्तक मैस्लो है|
मैस्लो के अनुसार 5 आवश्यकताएं व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है|
1 दैहिक आवश्यकता
2 सुरक्षा की आवश्यकता
3 स्नेह की आवश्यकता
4 सम्मान की आवश्यकता
5 आत्मानुभूति की आवश्यकता

5 संतुलन- स्थैर्य सिद्धांत

इस सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने का श्रेय जैकलिन, होकर व एप्पल को जाता है|
यह सिद्धांत और असंतुलन की स्थिति में भी संतुलन बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है|

6 सक्रियता सिद्धांत

यह व्यवहार की दक्षता पर बल देता है इसीलिए मांसपेशियों को सक्रिय बनाने के लिए प्रेरित करता है|

अभिप्रेरित करने के तरीके या विधियाँ

1 असफलता का भय दिखाकर
2 प्रशंसा एवं निंदा द्वारा
3 आवश्यकताओं का ज्ञान करा कर
4 प्रतियोगिताओं का आयोजन करा कर
5 श्रव्य दृश्य सामग्री के प्रयोग द्वारा
6 विद्यालय में कक्षा के उचित वातावरण द्वारा
7 पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन द्वारा
8 आकांक्षा का स्तर जानकर
9 प्रतिस्पर्धा की भावना जागृत करके
10 सफलता का आभास कराकर

अधिगम में अभिप्रेरणा का महत्व

1 व्यवहार को नियंत्रित करने में सहायक
2 ध्यान केंद्रित करने में सहायक
3 चरित्र निर्माण में सहायक
4 लक्ष्य प्राप्ति में सहायक
5 अधिगम तत्परता जागृत करने में सहायक
6 रुचि जागृत करने में सहायक
7 मानसिक क्रियाओं के विकास में सहायक
8 अनुशासन स्थापित करने में सहायक
9 आत्म नियंत्रण में सहायक
10 अधिगम की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक

विकास

शिक्षा मनोविज्ञान में शैशवावस्था से लेकर परिपक्व अवस्था तक बालक के विकास का अध्ययन किया जाता है|

अभिवृद्धि एवम् विकास का अर्थ-

सामान्य रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर एवम् उसके अंगों के भार एवम् आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है जबकि विकास में मानसिक वृद्धि,शारीरिक वृद्धि,संवेगात्मक परिपक्वता,बौद्धिक परिपक्वता का अध्ययन किया जाता है|

"बाल मनोविज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो व्यक्ति के विकास का अध्ययन गर्भकाल के प्रारंभ से किशोर अवस्था की प्रारंभिक अवस्था तक करता है|"-क्रो और क्रो

विकास को प्रभावित करने वाले कारक

परिवार- बालक का विकास इस बात

पर निर्भर करता है कि उसके परिवार की स्तिथि क्या है ?
प्राय: देखा जाता है कि जिस बालक की पारिवारिक स्तिथि मजबूत होती है| उनका विकास आसानी से होता है और कमजोर स्तिथि वाले परिवार के बालक का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पता है|

विद्यालय- बालक के विकास को प्रभावित करने में विद्यालय बहुत ही महत्वपूर्ण कारक माना जाता है|
'विद्यालय समाजीकरण का सक्रीय साधन है'

वंशानुक्रम- बालक के विकास में वंशानुक्रम का बहुत ही ज्यादा प्रभाव पड़ता हम देखते है कि जिस बालक के माता-पिता या दादा - दादी हृस्ट-पुष्ट होते है| उनके बालक भी उन्ही की तरह होते है|

वतावरण- वातावरण का भी भाहूत ही ज्यादा प्रभाव पड़ता है जो बालक स्वच्छ वातावरण में रहता है| उसका मानसिक और बोद्धिक विकास उचित रूप से होता है|

पोषण - शारीरिक विकास पर पोषण का बहुत ही ज्यादा प्रभाव पड़ता है, जिस बालक को स्वच्छ भोजन उपलब्ध होता है उसका विकास उचित होता है|

लिंग-भेद
अन्तःस्त्रावी ग्रंथिया
आस-पड़ोस का वातावरण
रोग एवं चोट

बालक का विकास अधिगम का ही परिणाम माना जाता है|

बालक अनुभवों या अधिगम द्वारा जो अर्जित करता है उसे सामाजिक गुण कहते है|

"विकास वंशानुक्रम के उपहार तथा वातावरण के सामाजिक एवं सांस्कृतिक बलों की अंत:क्रिया पर आधारित है|परिपक्वता कच्चा माल प्रदान करती है तथा काफी हद तक ये निर्धारित करती है के बालक के व्यवहार के प्रतिमान और व्यवहार के क्रम क्या होंगे"  - हरलॉक

“जब बालक ,विकास की एक अवस्था से दूसरी में प्रवेश करता है,तब उसमे कुछ परिवर्तन दिखते है| अध्ययनों ने ये सिद्ध कर दिया है कि ये परिवर्तन निश्चित सिद्धांतों के अनुसार ही होते है| इन्ही को विकास के सिद्धांत कहते है|” ----गैरिसन1
विकास के विभिन्न सिद्धांत

निरंतर विकास का सिद्धांत

- विकास की गति भिन्न होती है|
"विकास की निरंतरता का सिद्धात इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है" ----स्किनर
व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है इसकी गति कभी तीव्र तो कभी मंद रहती है|

0-3 वर्षों में विकास की गति बहुत तीव्र होती है|
3-11 वर्ष तक मंद
12-18 विकास की गति तीव्र
18 के बाद विकास की गति मंद

विकास क्रम का सिद्धांत-

जन्म के समय बालक रोना सिखता है|
3 माह का होता है तो वह गले से विशेष प्रकार की आवाजे निकलता है|
7 माह का शिशु अपने माता -पिता के लिए 'पा' 'माँ' आदि शब्दों का प्रयोग करने लगता है|

विकास सामान्य से विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा होता है

"विकास की सब अवस्थाओं में बालक की प्रतिक्रियाये विशिष्ट बनाने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती है|" -हरलॉक
नवजात शिशु किसी वस्तु को पकड़ने के लिए किसी विशेष अंग का प्रयोग करने से पूर्व अपने शरीर का सञ्चालन करता है|

एकीकरण का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार बालक सबसे पहले सम्पूर्ण अंग को चलना सिखता है|
उसके बाद अंग के किसी भाग को चलाना सिखता है|
उसके बाद वह उन अंगो को एक साथ चलाना सिखाता है|

"विकास में पूर्ण अंगों की ओर,एवं अंगों से पूर्ण की ओर गति निहित होती है| विभिन्न अंगों का एकीकरण ही गतियों की सरलता को सफल बनाता है" -कुप्पुस्वामी

वैयक्तित्व विभिन्नताओं का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक बालक और बालिका का विकास का अपना स्वयं का स्वरूप होता है,इस स्वरूप में वैयक्तित्व विभिन्नता पाई जाती है|
एक ही आयु के दो बालक या बालिकाओं के शारीरिक,मानसिक,सामाजिक आदि विकास में वैयक्तित्व विभिन्नताओं को स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है|
"विकास के स्वरूपों में व्यापक वैयक्तित्व विभिन्नताए होती है|" ---स्किनर

विकास का वर्तुलाकार सिद्धांत-

इस सिद्धांत के अनुसार विकास लम्बवत न होकर वर्तुलाकार होता है|
एक व्यक्ति सीधा चलकर विकास नहीं कर सकता है बल्कि आगे बढेगा उसके पच्चात पीछे आएगा उसके पच्चात पुनः आगे बढेगा|

वृद्धि और विकास वंशानुक्रम और वातावरण की अंत:क्रिया का परिणाम

ये सिद्धांत कहता है की बालक का विकास न केवल वंशानुक्रम और न केवल वातावरण के कारन होता है बल्कि विकास विकास वंशानुक्रम और वातावरण का संयुक्त परिणाम है|
"यह सिद्ध किया जा चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है,जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है| इसी प्रकार ,यह भी प्रमाणित किया जा चुका है कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में दूषित वातावरण ,कुपोषण,या गंभीर रोग जन्मजात योग्यताओं को कुंठित या निर्बल बना सकते है|" -स्किनर

मस्तकधोमुखी क्रम या सेफेलोकोडल थ्योरी

इसे सिर से पैर की और विकास का सिद्धात कहते है|
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सिर से पैर की और होता है|

निकट से दूर का सिद्धांत या प्रोक्सिमोडीस्तल थ्योरी

इस सिद्धांत के अनुसार विकास मध्य से बहार की ओर एवं केंद्र से सिरों की ओर होता है|

परस्पर सम्बन्ध का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार बालक के शारीरिक,मानसिक,संवेगात्मक,

आदि के विकास परस्पर सम्बंधित होते है|
जब बालक का शारीरिक विकास होगा तो उसके साथ-साथ भषा का विकास भी होगा संवेगात्मक विकास भी होगा उसकी रुचियों में भी परिवर्तन आएगा|

"शरीर सम्बन्धी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामन्जस्य और परस्पर सम्बन्ध पर बल देता है" -गैरिसन

प्रत्येक विकासात्मक अवस्था में अंतर्निहित खतरे होते है|
चिंतन(Thinking)

चिंतन का अर्थ( meaning of thinking)

मनुष्य के सामने कोई न कोई समस्या आती रहती हैं ऐसी स्थिति में बहुत समस्या का समाधान करने के लिए उपाय के बारे में सोचने लगता है वह इस बात पर विचार करना आरंभ कर देता है की समस्या का किस प्रकार समाधान किया जा सकता है| इस प्रकार चिंतन प्रक्रिया प्रारंभ होती हैं और समस्या का समाधान होते ही प्रक्रिया समाप्त हो जाती हैं|

अतः कह सकते हैं चिंतन विचार करने की वह मानसिक प्रक्रिया है जो किसी समस्या के साथ आरंभ होती है और उसके अंत तक चलती रहती हैं|

“चिंतन मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलू हैं या मन की बातों से संबंधित मानसिक क्रिया है|” - रॉस

चिंतन के प्रकार

1 प्रत्यक्षीकरण चिंतन

यह चिंतन की सरलतम विधि हैं| इस चिंतन प्रक्रिया में चिंतन किसी व्यक्ति वस्तु घटना के प्रत्यक्षीकरण से आरंभ होता है|
जैसे- इमली देखकर मुंह में पानी आना|

2 अमूर्त चिंतन

इस चिंतन में किसी वस्तु के संपर्क में आना आवश्यक नहीं है| इस चिंतन को प्रत्यक्षीकरण चिंतन से श्रेष्ठ माना जाता है| इस चिंतन में प्रतीक चिन्हों को देखकर चिंतन आरंभ होता है|
जैसे- रेडक्रॉस को देख कर बालक हॉस्पिटल के बारे में सोचना प्रारंभ कर लेता है|

3 सृजनात्मक चिंतन

चिंतन वस्तुओं, घटनाओं एवं परिस्थितियों का विश्लेषण करता है| इस प्रकार के चिंतन में नवीनता का सृजन होता है|

4 तार्किक चिंतन

चिंतन सबसे उच्च कोटि का है| इस प्रकार के चिंतन में बालक किसी समस्या का समाधान करने के लिए प्रयोग का प्रयोग करते हुए किसी लक्ष्य तक पहुंचता है|
इसे विचारात्मक चिंतन भी कहते हैं|
यह चिंतन उच्च कक्षा के बालकों में उत्पन्न करना चाहिए|

चिंतन और शिक्षा

बौद्धिक विकास में चिंतन का प्रमुख रोल होता है| शिक्षा- प्रक्रिया को सुचारु रुप से चलाने के लिए चिंतन शक्ति का विकास करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है|

बालकों में चिंतन शक्ति का विकास करने के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-
1 भाषा- विकास पर ध्यान
2 रठने की आदत को दूर करना
3 जिज्ञासा को जागृत करना
4 प्रेरणा प्रदान करना
5 वाद विवाद एवं तर्क के लिए अवसर देना
6 उत्तरदायित्व के कार्य सपना
7 अध्यापन विधि पर ध्यान देना
8 मूल्यांकन पद्धति पर ध्यान देना
9 विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करना
10 प्रत्यक्षीकरण अनुभव का विकास करना

समस्या समाधान

जब वह मनुष्य के सामने कोई समस्या आती हैं तो वह समस्या के समाधान के लिए चिंतन आरंभ करता है उचित चिंतन के द्वारा समस्या का समाधान खोजता है अर्थात समस्या समाधान वह प्रतिमान है जिसमें तार्किक चिंतन निहित होता है|

समस्या समाधान की परिभाषा

वेस्ले तथा रोनस्को- “ समस्या समाधान एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना करने के लिए अध्ययन तथा खोज की आवश्यकता पड़ती है|

स्किनर- समाधान किसी लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक बनती कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया है| यह बाधाओं के बावजूद समायोजन कर सकने की प्रक्रिया है|

मर्सेल- समस्या समाधान विधि का शिक्षा में सबसे अधिक महत्व है
|

समस्या समाधान की विधियां

1 अनसीखी विधि
2 प्रयास और त्रुटि विधि
3 सूझ एवं अंतर्दृष्टि विधि
4 वैज्ञानिक विधि

वैज्ञानिक विधि के चरण

1 समस्या के प्रति चेतना या जागरूकता
2 समस्या को समझना
3 संबंधित सूचना व आंकड़े एकत्रित करना
4 परिकल्पना संभव समाधानों का निर्माण करना
5 निष्कर्ष या समाधान की पुष्टि करना

समस्या समाधान विधि का महत्व

1 इससे छात्रों के तार्किक चिंतन व सृजनात्मक शक्ति का विकास होता है|
2 समस्याओं का समाधान करने के लिए वैज्ञानिक विधि के प्रयोग का अनुभव प्राप्त होता है|
3 समस्या समाधान विधि से छात्रों में स्वयं कार्य करने का आत्मविश्वास उत्पन्न होता है|
4 समस्या समाधान विधि छात्रों की रुचि को जागृत करती हैं|
5 समस्या समाधान विधि छात्रों को उनके भावी जीवन की समस्याओं को हल करने का प्रशिक्षण देती हैं|

अधिगम या प्रशिक्षण के स्थानांतरण का सामान्य अर्थ

“ किसी एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, आदित्य दृष्टिकोणों अथवा अन्य अनुप्रयोग का किसी अन्य परिस्थिति में प्रयोग करना”

अधिगम स्थानांतरण की महत्वपूर्ण परिभाषाएं

सौरेंसन - " स्थानांतरण एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, प्रशिक्षण और आदतों का दूसरी परिस्थिति में स्थानांतरित किए जाने की चर्चा करता है|"

कार्लसनिक- " स्थानांतरण पहली परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान, कौशल, आदित्य, दृष्टिकोण हो या अन्य क्रियाओं का दूसरी परिस्थिति में अनुप्

रयोग करना है|"

इन सभी के द्वारा हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि एक परिस्थिति में सीखे हुए ज्ञान, कौशल, आदतो आदि का अन्य परिस्थिति में अनुप्रयोग ही अधिगम या प्रशिक्षण का स्थानांतरण है|

अधिगम स्थानांतरण के प्रकार

सकारात्मक स्थानांतरण- एक परिस्थिति में अथवा एक विषय में सिखा गया ज्ञान किसी नवीन परिस्थिति या विषय को सीखने में सहायता प्रदान करता है तो उसे सकारात्मक स्थानांतरण कहते है| हैं|

उदाहरण के लिए-
जो व्यक्ति साइकिल चलाना सीख जाता है उसे बाइक चलाने में भी आसानी रहती हैं, बाइक चलाना आसानी से सीख जाता है|

नकारात्मक स्थानांतरण- जब एक परिस्थिति में सीखा गया ज्ञान, नवीन ज्ञान के सीखने में बाधा उत्पन्न करता है तो उसे नकारात्मक स्थानांतरण कहते हैं|
उदाहरण के लिए- 
यदि किसी अमेरिकन को, जीवन भर बाए हाथ से गाड़ी चलाई हो, अगर भारत में आ कर उसे दायां हाथ से गाड़ी चलानी पड़े तो उसका पहला प्रशिक्षण नई स्थिति में बाधा उत्पन्न करेगा|

शून्य स्थानांतरण - जब एक कार्य का प्रशिक्षण दूसरे कार्य को सीखने में न तो सहायता ही करता है और नहीं बाधा उत्पन्न करता है| तो इस प्रकार की प्रशिक्षण को शून्य स्थानांतरण कहते हैं| शून्य अंतरण का एक कारण यह भी हो सकता है कि पहले कार्य की प्रकृति का दूसरे कार्य की प्रकृति से कोई संबंध ही ना हो|

जैसे- भूगोल का ज्ञान भौतिक शास्त्र की समस्या को नहीं सुलझा सकता|

अधिगम स्थानांतरण के सिद्धांत

मानसिक शक्तियों अथवा औपचारिक अनुशासन का सिद्धांत-- इस सिद्धांत के अनुसार मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की शक्तियां होती हैं|

जैसे- तर्कशक्ति, विचार शक्ति, कल्पना शक्ति, स्मरण शक्ति, निर्णय शक्ति आदि|
यह सभी शक्तियां विशिष्ट प्रकार की होती हैं तथा स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं|अतः इन स्वतंत्र रूप से शक्तिशाली बनाया जाना चाहिए|

समान तत्व का सिद्धांत-- इस सिद्धांत का प्रतिपादन थार्नडाइक ने किया|
इनके के अनुसार एक विषय का अध्ययन दूसरे विषय के अध्ययन में सभी सहायक सिद्ध होता है जबकि इन दोनों विषयों में कुछ तत्व समान हो|

सामान्यीकरण का सिद्धांत-- 
इस सिद्धांत का प्रतिपादक जड़ है|
जड़ के अनुसार जब कोई व्यक्ति अपने किसी कार्य, ज्ञान या अनुभव से कोई सामान्य नियम या सिद्धांत निकाल लेता है तो वह दूसरी परिस्थिति में उसका प्रयोग आसानी से कर सकता है|

दो तत्व सिद्धांत- इस सिद्धांत के प्रतिपादक स्पीयरमैन है|
स्पीयरमैन ने बताया कि बुद्धि दो प्रकार की होती है- सामान्य बुद्धि और विशिष्ट बुद्धि|
आमतौर पर जीवन में सामान्य बुद्धि का ही उपयोग किया जाता है तथा जहाँ तक विशिष्ट बुद्धि का प्रश्न है वह हर व्यक्ति में भिन्न होती हैं| स्पीयरमैन के अनुसार अंतरण विशिष्ट योग्यता में न होकर सामान्य योग्यता में होता है|

आदर्शों का सिद्धांत-- 
इस सिद्धांत के प्रतिपादक बागले हैं|
बागले के अनुसार अंतरण का संबंध इतना वस्तु या बातों से नहीं होता जितना की उस बात को अंतरित करने वाले व्यक्ति के आदर्शों से होता है|

पूर्ण-आकार वाद सिद्धांत-- 
इस सिद्धांत का प्रतिपादन गेस्टाल्टवादियो ने किया|
यह मनोवैज्ञानिक सूझ को अधिक महत्व देते हैं| इन के अनुसार सूझ अथवा अंतर्दृष्टि से अनुभव एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में अंतरित हो जाते हैं|

स्थानांतरण का शैक्षिक महत्व-

1 अध्यापकों कक्षा में अपने विद्यार्थियों को को सामान्य सिद्धांतों की अधिक जानकारी देनी चाहिए तथा विशिष्ट सिद्धांतों की कम|

2 किसी प्रत्येक को स्पष्ट करने के लिए अध्यापक को दैनिक जीवन से संबंधित पर्याप्त उदाहरण देनी चाहिए|

3 अध्यापक को पढ़ाते समय मुख्य बिंदुओं पर ध्यान अधिक देना चाहिए|

4 स्थानांतरण का पाठ्यक्रम निर्माण में विशेष महत्व है| अतः पाठ्यक्रम में जीवनोपयोगी विषयों को स्थान देना चाहिए|

5 छात्रों को नकारात्मक अंतरण के अवसर नहीं दिए जाने चाहिए|

6 छात्रों से अधिक से अधिक सामान्य करण करवाए जाना चाहिए|

7 शिक्षक पढ़ाते समय सहसंबंध के सिद्धांत को अपनाएं

8 शिक्षक बालकों को किताबी कीड़ा न बनाए बल्कि उन्हें कार्यानुभव के माध्यम से शिक्षा प्रदान करें|
9 छात्रों को उनकी भविष्य की योजनाओं के अनुरूप शिक्षा दी जानी चाहिए|
10 छात्रों को नियमित रूप से स्थानांतरण के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए|
11 शिक्षक को बालक की मानसिक योग्यता एवं व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार पाठ्य विषय एवं शिक्षण विधियों का चयन करना चाहिए तथा स्थानांतरण के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्रदान करनी चाहिए|
12 शिक्षक स्थानांतरण की सफलता के लिए चिंतन शक्ति का विकास तथा अध्ययन के प्रति रुचि जागृत करनी चाहिए| साथ ही, ज्ञानार्जन के लिए बालक को सदेव प्रेरित करते रहना चाहिए|


अधिगम

अधिगम मानसिक प्रक्रिया है जिसमें बालक परिपक्वता की ओर बढ़ता हुआ अपने अनुभव से लाभ उठाता है| वह अपनी स्वाभाविक व्यवहार अनुभूति में प्रगतिशील परिवर्तन परिमार्जन करता है|

यह प्रक्रिया जीवन पर्यंत तथा सर्वत्र चलती रहती है|

महत्वपूर्ण परिभाषाएं

वुडवर्थ- नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया है|

क्रो व क्रो - सीखना आदतों,ज्ञान और अभिवृत्ति का अर्जन है|

गिलफोर्ड - व्यवहार के फलस्वरुप व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन आना ही सीखना अथवा अधिगम है|

गेट्स एवं अन्य - अनुभव और प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाना ही अधिगम या सीखना है|

स्किनर - प्रगतिशील व्यवहार व्यवस्थापन की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं|

अधिगम की विशेषताएं

सीखना सार्वभौमिक है|
संपूर्ण जीवन पर्यंत चलता है|
सीखना विकास है|
सीखना परिवर्तन है|
सीखना अनुकूलन है|
सीखना अनुभवों का संगठन है|
सीखना उद्देश्यपूर्ण है|
सीखना सक्रिय है|
व्यक्तिगत और सामाजिक है|
सीखना वातावरण की उपज है|
सीखना खोज करना है|

सीखने की प्रक्रिया में सोपान

सीखने की प्रक्रिया को निम्न चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है|
अभिप्रेरणा (M)
व्यक्ति(P)
विभिन्न अनुक्रिया(V)
बाधाएं(B)
सही अनुक्रिया (CR)
पुनर्बलन (R)
संगठन(O)
उद्देश्य(T)

सीखने की प्रक्रिया में सबसे पहले बालक में प्रेरणा जागृत होती है|
बालक द्वारा विभिन्न अनुक्रिया की जाती है|
अनुक्रिया करने पर बाधा उत्पन्न होती है|
बाधाओं का निराकरण कर सही अनुक्रिया की जाती है|
सही अनुक्रिया करने पर पुनर्बलन मिलता है|
पुनर्बलन के पश्चात आगे बढ़ता हुआ बालक सभी अनुक्रियाओं का संगठन करता हुआ अपने उद्देश्य को प्राप्त करता है|

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

अभिप्रेरणा
उचित वातावरण - परिवार का वातावरण
विद्यालय का वातावरण
कक्षा का वातावरण
सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण
मनोवैज्ञानिक वातावरण
रुचि, इच्छा शक्ति, बुद्धि, आयु, अभ्यास
शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य
अधिगम की विधि
अध्यापक की भूमिका
परिपक्वता
शिक्षा के अनौपचारिक साधन
अधिगम का समय व थकान
विशेष सामग्री का स्वरूप

अधिगम के प्रकार

1 ज्ञानात्मक अधिगम
2 भावात्मक अधिगम
3 क्रियात्मक अधिगम

1 ज्ञानात्मक अधिगम-

सीखने का यह तरीका बौद्धिक विकास तथा ज्ञान अर्जित करने की समस्त क्रियाओं पर प्रयुक्त होता है|
ज्ञानात्मक अधिगम को तीन भागों में बांटा जा सकता है|-
1 प्रत्यक्षात्मक सीखना- जब वस्तु को देखकर, सुनकर, या स्पष्ट करके उसका ज्ञान प्राप्त किया जाता है उसे प्रत्यक्षआत्मक सीखना कहते हैं|
इस तरह का सीखना शैशव अवस्था व बाल्यावस्था में होता है|

2 प्रत्यात्मक सीखना- इसमें जब बालक साधारण ज्ञान या अनुभव प्राप्त कर लेता है तो वह तर्क चिंतन और कल्पना के आधार पर सीखने लगता है इस प्रकार वह अनेक अमूर्त बातें सीखता है|

3 साहचर्यात्मक सीखना- जब पुराने ज्ञान तथा अनुभव के द्वारा किसी पक्ष को सिखा जाता है तो यह साहचर्य आत्मक सीखना होता है|

2 भावात्मक अधिगम

भावात्मक अधिगम का संबंध न तो ज्ञान प्राप्त करने से हैं नहीं कौशल को प्राप्त करने से है|
इसका संबंध बच्चों की कोमल भावनाओं से हैं|
इसमें बालक किसी दृश्य को देख कर किसी आवाज को सुनकर आनंद प्राप्त करता है|

3 क्रियात्मक अधिगम

इस अधिगम में किसी कला में निपुणता प्राप्त की जाती है|
इसमें कौशल विकसित होता है|
जैसे - संगीत नृत्य, ड्राइंग, मॉडल बनाना|

कौशल प्राप्त करने की 6 चरण है जो कि निम्न है|
1 तैयारी
2 उद्देश्य
3 प्रस्तुतिकरण या प्रदर्शन
4 अभ्यास
5 शुद्धिकरण
6 पुनः अभ्यास

बुद्धि (Intelligence)

17वीं शताब्दी से ही दर्शन के साथ मनोविज्ञान के अध्ययन पर बुद्धि के स्वरूप संरचना प्रकार व सैद्धांतिक आधार की चर्चा प्रारंभ हो गई थी।

ई.एल. थार्नडाइक ने बुद्धि के तीन प्रकार बताए हैं
1 सामाजिक बुद्धि
2 मूर्त बुद्धि
3 अमूर्त बुद्धि

सामाजिक बुद्धि (Social Intelligence)

सामाजिक बुद्धि से तात्पर्य वैसी मानसिक क्षमता, जिसके सहारे व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को ठीक ढंग से समझता है व व्यवहार कुषलता दिखा पाता है|
ऐसे लोगों का सामाजिक संबंध बहुत ही अच्छा होता है व समाज में उनकी बहुत इज्जत होती है।
जैसे- शिक्षक,अच्छे नेता इत्यादि।

मूर्त बुद्धि Concrete Intelligence)

मूर्त बुद्धि से तात्पर्य ऐसी मानसिक क्षमता जिसके सहारे व्यक्ति ठोस वस्तुओं का महत्व समझता हैं तथा उसका उपयोग ठीक ढंग से विभिन्न परिस्थितियों में करता है ऐसे बुद्धि वाले व्यक्ति सफल व्यापारी बन सकते हैं।

अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence)

अमूर्त बुद्धि से तात्पर्य ऐसी मानसिक क्षमता जिसके सहारे व्यक्ति शाब्दिक तथा गणितीय संकेतों व चिन्हों को आसानी से समझ पाता है व उनकी उचित व्याख्या कर पाता है ऐसे व्यक्ति जिनमें अमूर्त बुद्धि अधिक होती हैं वे सफल कलाकार, गणितज्ञ व पेंटर होते हैं।

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि को निम्न परिभाषाओं से परिभाषित किया है |
वुडवर्थ के अनुसार ‘‘बुद्धि कार्य करने की एक विधि है।’’
बर्ट के अनुसार ‘‘बुद्धि अच्छी तरह न

िर्णय करने, समझने एवं तर्क करने की योग्यता है।
बंकिन्घम के अनुसार ‘‘सीखने की योग्यता ही बुद्धि है।’’
मन के अनुसार ‘‘नवीन परिस्थितियों को झेलने की मस्तिष्क की नमनीयता।’’

बुद्धि के सिद्धांतों की tricks

एक दो तीन बहुये बैठी समुही गाये |
बीने मेन मेन ही डाई केली जाय ||

क्रम से थ्री डी सेम्पल ए बी करो विकास |
बर्ट गील से थोमसन हैब पियाजे खास ||
इस tricks से आप सभी बुद्धि के सिद्धांत को याद कर सकते |

बुद्धि के सिद्धातं


बुद्धि के अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये गये है जो उसके स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश डालते है। इसके प्रमुख सिद्धांत है-
1. एक खण्ड का सिद्धांत।
2. दो खण्ड का सिद्धांत।
3. तीन खण्ड का सिद्धांत
4. बहु खण्ड का सिद्धांत।
5. मात्रा सिद्धांत।
6. वर्ग घटक सिद्धांत।
7. क्रमिक महत्व का सिद्धांत

एक खण्ड का सिद्धांत- 
इस सिद्धातं के प्रतिपादक बिनेट और टर्मन है। उन्होंने बुद्धि को एक अखण्ड और अविभाज्य इकाई माना है। उनका मत है कि व्यक्ति की विभिन्न मानसिक योग्यताएं एक इकाई के रूप में कार्य करती है।

दो खण्ड का सिद्धांत- 
इस सिद्धातं का प्रतिपादक स्पीयरमैन है। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में दो प्रकार की बुद्धि होती है- सामान्य तथा विशिष्ट।

तीन खण्ड का सिद्धांत- 
यह सिद्धातं भी स्पीयरमैन के नाम से संबंधित है। उसने इसका नाम सामूहिक खण्ड दिया। उसने बुद्धि का एक खण्ड और बनाया।

बहुखण्ड का सिद्धांत- 
स्पीयरमैन के बुद्धि के सिद्धातं पर आगे कार्य करके गिलफर्ड ने ‘‘बहुखण्ड का सिद्धांत’’ प्रतिपादित किया।

क्रमिक महत्व का सिद्धांत- 
बर्ट तथा टर्मन ने मानसिक योग्यताओं को क्रमानुसार महत्व दिया है। यह क्रम इस प्रकार है-
सामान्य।
स्मरण, चिन्तन, तर्क, कल्पना।
विशेष मानसिक योग्यता

प्रतिदर्श सिद्धांत- 
थोमसन का प्रतिदर्श का सिद्धांत
त्रि-आयामी सिद्धांत- गिल्फोर्ड के द्वारा दिया गया सिद्धांत जिसमे गिल्फोर्ड में 1967 में डिब्बे के आकार का एक मोडल प्रस्तुत किया जिसे “बुद्धि संरचना मोडल” कहते है| इस मोडल में मूल रूप से 120 कोष बताये गए है|
शैशवावस्था - (जन्म से 5 वर्ष की उम्र)

एडलर :- "शिशु के जन्म के कुछ समय बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि भविष्य में उसका स्थान क्या है !"

सिगमंड फ्रायड :- "शिशु में काम प्रवर्ती बहुत प्रबल होती हैं पर वयस्को की भांति उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती है !"

रॉस :- "शिशु कल्पना का नायक है अत: उसका भली प्रकार निर्देशक अपेक्षित हैं !"

रूसो :- "बालक के हाथ, पैर, व नैत्र उसके प्रारंभिक शिक्षक हैं! इन्ही के द्वारा वह पाँच वर्ष मे ही पहचान कर सकता है , सोच सकता है और याद कर सकता है !"

स्टैंग :- "जीवन के प्रथम 2 वर्षों में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है!"

ब्रिजेस:- "2 वर्ष की उम्र तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है !"

वैलेंटाईन :- "शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है !"

गैसल :- "बालक प्रथम छ: वर्ष में बाद के 12 वर्ष से भी दुगुना सीख जाता है !"

वाटसन :- "शैशवावस्था में सीखने की सीमा व तीव्रता विकास की अवस्था से बहुत अधिक होती हैं !"

क्रो एंड क्रो :- " बींसवीं शताब्दी बालकों की शताब्दी है !"


बाल्यावस्था :-(6-12 वर्ष)

ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन- "शैक्षिक दृष्टिकोण से बाल्यावस्था से अधिक जीवन मे कोई महत्वपूर्ण अवस्था नही है "

किलपैट्रिक महोदय- " बाल्यावस्था को प्रतिद्वंद्वात्मक समाजीकरण का काल कहा है"

कोल एवं ब्रुस- "बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल कहा है"

रॉस - "बाल्यावस्था को मिथ्या या छदम परिपक्वता का काल कहा है !"

बर्ट- "बाल्यावस्था भ्रामक एवं साहसिक कार्य की प्रवृति मे वृद्धि होती है"

स्ट्रैंग- "बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है व उसके बारे में जल्दी से जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है"

सिगमंड फ्रायड - "बाल्यावस्था को काम की प्रसुप्तावस्था का कहा है"

किशोरावस्था(12-18 वर्ष )

स्टैंडर्ड हॉल के अनुसार - “ किशोरावस्था प्रबल दबाव, तनाव, तूफान व संघर्ष का काल है|”

किल पैट्रिक के अनुसार- “ किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल”

रॉस के अनुसार- “ किशोरावस्था, शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है|”

वैलेंटाइन के अनुसार - “घनिष्ठ व व्यक्तिगत मित्रता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है|”
“ किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है”

स्किनर के अनुसार- “ किशोर को निर्णय का कोई अनुभव नहीं होता है”


संबंधवादी या व्यवहारवादी या परिधीय अथवा साहचर्य सिद्धांत

इस सिद्धांत में सीखने की प्रक्रिया को उद्दीपक अनुक्रिया के मध्य संबंध से स्पष्ट किया जाता है|
अधिगम की क्रिया में अनुकूल एवं प्रतिकूल वस्तुओं, घटनाओं आदि की उपस्थिति के कारण उनमें सीखने की क्रिया का साहचर्य स्थापित हो जाता है और इस प्रकार अधिगम की क्रिया उनके द्वारा प्रभावित होती है| जिससे मनुष्य पशु पक्षियों के व्यवहार पर भी इसका

प्रभाव पड़ता है|

इस संप्रदाय में पांच सिद्धांत आते हैं

1 थार्नडाइक का संबंधवाद
2 पावलव का शास्त्रीय अनुबंधन
3 स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंधन
4 हल का प्रबलन
5 गुथरी का समीपता सिद्धांत


संज्ञानवादी सिद्धांत

यह सिद्धांत मनोविज्ञान के गेस्टाल्ट संप्रदाय से प्रभावित है| यह सिद्धांत सीखने की प्रक्रिया में उद्देश्य, समझ व सूझ की भूमिका पर बल देता है|

इसके अंतर्गत निम्न सिद्धांत आते हैं

1 अंतर्दृष्टि का सिद्धांत
2 टॉल मैन का चिन्ह आकार अधिगम सिद्धांत
3 लेविन का क्षेत्र सिद्धांत
4 गेने का अधिगम सोपनिकी
5 बंडूरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत


निर्मितिवादी/ संरचनावादी/ रचनात्मकवाद

जेरोम ब्रूनर का रचनात्मक सिद्धांत से तात्पर्य ज्ञान की संरचना से हैं|
अधिगमकर्ता को यह पता होना चाहिए कि वह जो कुछ भी सीख रहा है उस की मूल प्रवृत्ति क्या है?
उसकी संरचना क्या?
तथा इसकी जीवन की उपयोगिता क्या है?
यदि ज्ञान को संरचनात्मक रूप से प्रस्तुत किया जाए तो अधिगम आसानी से हो जाता है|
स्थाई अधिगम के लिए संरचनात्मक अधिगम आवश्यक हैं|
यदि ज्ञान को संरचनात्मक रूप से प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो ज्ञान शीघ्र ही भुला दिया जाता है इस प्रकार के अधिगम को जॉन डिवी ने चिंतन मुक्त प्रक्रिया कहां हैं|
संरचनात्मक अधिगम के लिए अभिप्रेरणा का होना आवश्यक है|


व्यक्तित्व (PERSONALITY)

‘पर्सनालिटी’ शब्द का हिंदी अर्थ है| यह शब्द लैटिन भाषा के ’ परसोना’ से लिया गया है| पर्सोना का अर्थ होता है नकली चेहरा, मुखौटा|

परिभाषा

आलपोर्ट के अनुसार- “ व्यक्तित्व व्यक्ति में उन मनोदैहिक व्यवस्थाओं का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ अपूर्व समायोजन करता है|”

बोरिंग के अनुसार-” वातावरण के साथ सामान्य एवं स्थाई समायोजन ही व्यक्तित्व हैं”

मन के अनुसार- “ व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यवहार के तरीकों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं तथा अभिरुचियों का विशिष्टतम संगठन है”

ऊपर दी गई परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि
1 वातावरण के साथ उस व्यक्ति के समायोजन का निर्धारण व्यक्तित्व है|
2 व्यक्तित्व मानसिक एवं शारीरिक गुणों का संगठन है|
3 व्यक्तित्व मनुष्य के बाहरी एवं आंतरिक गुणों का सम्मिलित स्वरुप है|
4 व्यक्तित्व गत्यात्मक संगठन है|

व्यक्तित्व का वर्गीकरण

भारतीय दृष्टिकोण मैं व्यक्तित्व का वर्गीकरण

1 सतोगुणी व्यक्तित्व- सतोगुणी व्यक्तित्व वाला व्यक्ति उच्च आदर्श,श्रेष्ठमूल्य, उत्तम स्वभाव एवं नैतिक मूल्यों से युक्त होता है|

2 रजोगुणी व्यक्ति- सतोगुण व तमोगुण के मध्य की स्थिति रजोगुण की होती है| रजोगुणी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में कुछ अच्छे गुण भी होते हैं कुछ बुराइयां भी होती हैं|

3 तमोगुण व्यक्तित्व- ऐसे व्यक्ति निम्न स्वभाव के होते हैं इनमें कामी, क्रोधी, आलसी तथा अब माननीय व्यवहार उसे परिपूर्ण होते हैं|

भारतीय दृष्टिकोण में व्यक्तित्व को दूसरी तीन श्रेणियों में और विभक्त किया जा सकता है|-
1 कफज- शरीर में कब प्रधान व्यक्ति कवच व्यक्तित्व वाला होता है|
2 पित्तज- ऐसे व्यक्ति के शरीर में की प्रधानता होती हैं|
3 वायुज- ऐसे व्यक्ति के शरीर में वायु की प्रधानता होती है|

तीनों ही प्रकार के व्यक्ति स्वभाव, चरित्र व व्यवहार में एक दूसरे से भिन्न होते हैं|

पाश्चात्य दृष्टिकोण

शेल्डन के अनुसार- शेल्डन ने शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व को तीन भागों में बांटा है

1 गोलाकार
2 आयताकार
3 लंबाकार


स्प्रिंग के अनुसार व्यक्तित्व का वर्गीकरण

स्प्रिंग ने व्यक्तित्व को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के आधार पर 6 भागों में विभाजित किया है

1 सैद्धांतिक- इस श्रेणी में कवि, लेखक, दार्शनिक आदि को सम्मिलित किया जा सकता है|
2 आर्थिक- इस श्रेणी में व्यापारी, दुकानदार, उद्योगपति आदि को सम्मिलित किया जा सकता है|
3 सामाजिक - इस श्रेणी में सहानुभूति, सहिष्णुता, दया व समाज सेवा की भावना रखने वाले व्यक्ति आते हैं|
4 राजनीतिक- इस श्रेणी में आने वाले व्यक्ति राजनीति तथा प्रशासन में ज्यादा भाग लेते हैं|
5 सौंदर्यात्मक- इस श्रेणी में कलाकार, मूर्तिकार, साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी आदि आते हैं|
6 धार्मिक- इस श्रेणी में संत ,पुजारी, भक्त आदि आते हैं|


थार्नडाइक के अनुसार

1 सूक्ष्म विचारक
2 प्रत्यक्ष विचारक
3 स्थूल विचारक


जुंग के अनुसार

1 अंतर्मुखी
2 बहिर्मुखी
3 उभयमुखी



आधुनिक वर्गीकरण

1 भावुक व्यक्ति
2 कर्मशील व्यक्ति
3 विचारशील व्यक्ति

व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक

व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को दो भागों में बांटा गया है|

1 जैविकीय वंशानुक्रम संबंधी कारक
2 सामाजिक व वातावरणीय कारक

1 जैविक या वंशानुक्रम संबंधी कारक

शारीरिक बनावट
स्वास्थ्य
बौद्धिक योग्यता
स्नायुमंडल
अंत स्त्रावी ग्रंथियां

2 सामाजिक व वातावरणीय कारक

परिवार
मित्र मंडली
विद्यालय
पड़ोस
भौतिक

मन से मिलकर बना होता है|
5 इनकी विश्वसनीयता और वैधता निर्धारित करना बहुत कठिन कार्य है|
6 यह प्रविधियां सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा सामान्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने में अत्यधिक उपयोगी साबित होती हैं|
7 अनुसंधान कार्यों की अपेक्षा के चिकित्सक क्षेत्रों में इसका व्यापक रूप से प्रयोग संभव होता है|

स्याही धब्बा परीक्षण

निर्माण- हरमन रोर्शा 1921
10 कार्ड
5 कार्ड काले वह सफेद स्याही के धब्बे वाले
5 कार्ड विभिन्न रंग के
बालकों को कार्ड दिखाकर पूछा जाता है कि इनमें कौन सी आकृति दिखाई दे रही है?

प्रासंगिक अंतर्बोध या प्रसंग आत्मक बोध परीक्षण(TAT)

निर्माण- मॉर्गन व मुर्रे 1935
30 कार्ड प्रत्येक पर एक चित्र
10 कार्ड पर स्त्रियों से संबंधित चित्र
10 कार्ड पर पुरुषों से संबंधित चित्र
10 कार्ड पर स्त्री और पुरुष दोनों से संबंधित चित्र
14 वर्ष से अधिक के बालक को इन चित्रों को देखकर कहानी लिखने के लिए कहा जाता है|

बाल संप्रदाय या बालकों का बोर्ड परीक्षा(CAT)

निर्माण- लियोपोल्ड बैलोक 1948
10 कार्ड होते हैं| प्रत्येक कार्ड पर जानवरों के चित्र
बच्चों को कार्ड दिखाकर कहानी लिखने के लिए कहा जाता है|

वाक्य पूर्ति परीक्षण

निर्माण- पाइन व तैन्डलर 1930
इसमें अधूरे वाक्य को पूरा करना होता है|


पिछड़े बालक

पिछड़े बालक का अर्थ(Meaning Of Backward Child)
जो बालक कक्षा का औसत कार्य नहीं कर पाता हैं और कक्षा के औसत छात्रों से पीछे रहता हैं उसे पिछड़ा बालक कहते हैं l पिछड़े बालक का मन्दबुद्धि होना आवश्यक नहीं हैं l पिछड़ेपन के अनेक कारण हैं- जिनमें से मन्दबुद्धि होना एक हैं l
यदि प्रतिभाशाली बालक की शैक्षिक योग्यता अपनी आयु के छात्रों से कम हैं, तो उसे भी पिछड़ा बालक कहा जाता हैं l

पिछड़े बालक के विषय में कुछ विचार निम्नलिखित हैं ~

शोनेल एवं शोनेल - “पिछड़े बालक उसी जीवन-आयु के अन्य छात्रों की तुलना में विशेष शैक्षिक निम्नता व्यक्त करते हैं l”

हिज मैजेस्टी कार्यालय के अनुसार - हिज मैजेस्टी कार्यालय के प्रकाशन पिछड़े बालकों की शिक्षा में कहा गया हैं - “पिछड़े बालक वे हैं, जो उस गति से आगे बढ़ने में असमर्थ होते हैं, जिस गति से उनकी आयु के अधिकांश साथी आगे बढ़ रहे हैं l”

सिरिल बर्ट - “पिछड़ा बालक वह हैं, जो अपने विधालय जीवन के मध्य में (अर्थात् लगभग साढ़े दस वर्ष की आयु में) अपनी कक्षा से नीचे की कक्षा के उस कार्य को न कर सके, जो उसकी आयु के बालकों के लिए सामान्य कार्य हैं l”

पिछड़े बालकों की विशेषताऐं (Characteristics Of Backward Child)

पिछड़े बालकों में निम्नलिखित विशेषताऐं पाई जाती हैं -

▪बुद्धि-परीक्षाओं में निम्न बुद्धि-लब्धि (90 से 110 तक) l
▪सामान्य विधालय के पाठ्यक्रम से लाभ उठाने में असमर्थता l
▪जन्मजात योग्यताओं की तुलना में कम शैक्षणिक उपलब्धि l
▪समाज-विरोधी कार्यों की प्रवृत्ति l
▪सीखने की गति धीमी l
▪जीवन में निराशा का अनुभव l
▪विधालय-कार्य में सामान्य बालकों के समान प्रगति करने की अयोग्यता l
▪व्यवहार-सम्बन्धी समस्याओं की अभिव्यक्ति
▪सामान्य शिक्षण विधियों द्वारा शिक्षा ग्रहण करने में विफलता l
▪मानसिक रूप से अस्वस्थ और असमायोजित व्यवहार l
▪अपनी और उससे नीचे की कक्षा का कार्य करने में असमर्थता l
▪मन्द बुद्धि, सामान्य बुद्धि या अति श्रेष्ठ बुद्धि का प्रमाण l

पिछड़ेपन या शैक्षिक मन्दता के कारण (Causes Of Backwardness Or Educational Retardation)

विधालय में अनुपस्थिती l
शारीरिक दोष l
निम्न सामान्य बुद्धि l
परिवार की निर्धनता l
माता-पिता की बुरी आदतें l
विधालयों का दोषपूर्ण संगठन व वातावरण l
परिवार के झगड़े l
माता-पिता की अशिक्षा l
परिवार का बड़ा आकार l
सामान्य से कम शारीरिक विकास l
माता-पिता का दृष्टिकोण l
शारीरिक रोग l

पिछड़े बालक की शिक्षा (Education Of Backward Child)

स्टोन्स - “आजकल पिछड़ेपन के क्षेत्र में किया जाने वाला अधिकांश अनुसंधान यह सिद्ध करता हैं उचित ध्यान दिये जाने पर पिछड़े बालक, शिक्षा में प्रगति कर सकते हैं l”
विशिष्ट विधालयों की स्थापना l
हस्तशिल्पों की शिक्षा l
विशिष्ट विधालयों का संगठन l
छोटे समूहों में शिक्षा l
अध्ययन के विषय l
विशेष पाठ्यक्रम का निर्माण l
अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति l
सांस्कृतिक विषयों की शिक्षा l
विशेष शिक्षण-विधियों का प्रयोग l
विशिष्ट कक्षाओं की स्थापना l


मानसिक रूप से मन्द बालक(Mentally Retarded Children)

मानसिक मन्दता का अर्थ - औसत से कम मानसिक योग्यताl
अर्थात् जिन बालकों की बुद्धि-लब्धि, साधारण बालकों की बुद्धि-लब्धि से कम हो और उनमें विभिन्न मानसिक शक्तियों की न्यूनता पाई जाती हो मानसिक रूप से मन्द बालक कहलाते हैं l

विद्वानों के विचार निम्नलिखित हैं ~ क्रो एंड क्रो - जिन बालकों की बुद्धि-लब्धि 70 से कम होती हैं, उनको मन्द-बुद्धि बालक कहते हैंl

स्किनर - “प्

वातावरण
सांस्कृतिक वातावरण
व्यक्तित्व मापन की विधियां

व्यक्तित्व मापन की विधियों को चार भागों में बांटा गया है|

1 आत्मनिष्ठ या व्यक्तिनिष्ठ विधियां
2 वस्तुनिष्ठ विधियां
3 मनोविश्लेषणात्मक विधियां
4 प्रक्षेपण विधियां

व्यक्तिनिष्ठ विधियां

इन विधियों में आत्मकथा विधि, साक्षात्कार विधि, व्यक्ति इतिहास विधि, प्रश्नावली विधि आती हैं|

1 आत्मकथा विधि- विलियम वुंट तथा टीचनर इस विधि के प्रवर्तक है|
इस विधि में परीक्षक विद्यार्थी के व्यक्तित्व का परीक्षण करने के लिए एक शीर्षक दे देता है और उसे कहता है कि इस शीर्षक को ध्यान में रखते हुए वह अपने जीवन से संबंधित इतिहास लिखें|
विद्यार्थी के द्वारा लिखे गए इतिहास के माध्यम से उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है|

2 साक्षात्कार विधि- यह विधि अमेरिका से प्रारंभ हुई थी|
इस विधि में परीक्षक व परीक्षार्थी आमने-सामने होते हैं| परीक्षक परीक्षार्थी को प्रश्न पूछता है परीक्षार्थी उन प्रश्नों के उत्तर देता है| परीक्षार्थी द्वारा दिए गए उत्तर की सहायता से उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है|

3 व्यक्ति इतिहास विधि- यह विधि टाइड मैन द्वारा दी गई थी|
इस विधि में परीक्षक परीक्षार्थी के जीवन के बारे में तथ्य एकत्रित करता है उनकी सहायता से उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है|
यह विधि निदानात्मकता पर आधारित है| और सामान्य बालकों का निदान इसी विधि द्वारा किया जाता है|

4 प्रश्नावली विधि- इस विधि को व्यक्तिगत अनुसूची भी कहा जाता है|
वुडवर्थ द्वारा सबसे पहले पर्सनल डाटा इन्वेंटरी का निर्माण किया गया|
इस विधि में परीक्षक द्वारा प्रश्नों की एक सूची तैयार की जाती हैं, इन प्रश्नों का उत्तर परीक्षार्थी को ‘हां’ या ‘ना’ देना होता है|

वस्तुनिष्ठ विधियां

1 निरीक्षण विधि - इस विधि को बहिर दर्शन विधि व सार्वभौमिक विधि के नाम से भी जाना जाता है| इस विधि के प्रवर्तक वाटसन है|
इस विधि में परीक्षार्थी के व्यवहार का भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में अध्ययन किया जाता है|

2 समाजमिति विधि- यह विधि जे.एल. मोरेनो द्वारा दी गई है|
इस विधि में परीक्षार्थी से संबंधित सामाजिक प्रश्न समाज के व्यक्तियों से पूछे जाते हैं|

3 क्रम निर्धारण मापनी- धरण मापनी विधि में क्रम निर्धारण मापनी के माध्यम से व्यक्तियों से आंकड़े एकत्रित करके परीक्षार्थी के बारे में निष्कर्ष निकाला जाता है|

4 शारीरिक परीक्षण विधि- इस विधि में व्यक्ति की शारीरिक जांच करके निष्कर्ष निकाला जाता है| इस विधि का उपयोग पुलिस, वायु सेना, थल सेना, जल सेना की शारीरिक दक्षता परीक्षा के समय किया जाता है|

मनोविश्लेषणात्मक विधियाँ

प्रवर्तक सिगमंड फ्रायड
1 स्वतंत्र शब्द साहचर्य परीक्षण
2 स्वप्न विश्लेषण

प्रक्षेपण विधियां

प्रक्षेपण शब्द का सबसे पहले प्रयोग सिगमंड फ्रायड ने किया था|
प्रक्षेपण का अर्थ होता है अपने विचारों, बातों एवं कमियों को अन्य व्यक्तियों या पदार्थों के माध्यम से व्यक्त करना|
प्रक्षेपण वह प्रक्रिया है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के भावों, विचारों, भावनाओं, संवेगों, स्थाई भावों एवं आंतरिक भागों का अन्य व्यक्तियों या बाहरी जगत के माध्यम से सुरक्षात्मक रूप प्रस्तुत करता है|

वारेन के अनुसार- “ यह वह प्रवृत्ति हैं जिसमें व्यक्ति बाह्य जगत में अपने दमित मानसिक प्रक्रियाओं का प्रक्षेपण करता है”

प्रक्षेपण प्रविधियों के स्वरूप

इन प्रविधियों में सामान्य रूप से व्यक्ति के संभोग उद्दीपक स्थिति प्रस्तुत की जाती है तथा उसे ऐसे अवसर प्रदान किए जाते हैं कि वह अपने व्यक्तिगत जीवन से संबंधित छिपी हुई बातों को उन परिस्थितियों के माध्यम से प्रकट करें|
इन प्रविधियों का संबंध सामान्यतः अवचेतन मन में दमित इच्छाओं से होता है| प्रक्षेपण विधि के द्वारा अवचेतन में दबी हुई इच्छाओं को बाहर लाया जा सकता है|
प्रक्षेपण विधियां आंतरिक भावना तथा व्यक्तिगत संरचना का मापन करती हैं|

प्रक्षेपी विधियों की विशेषताएं

1 यह व्यक्ति के अंतर्मन में दबे हुए विचारों को प्रकट करने में सहायक होती हैं|
2 इनके द्वारा बाही पदार्थों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रुप से विचारों, अभिवृत्ति , संवेगों, अभाव, अनुभव, भावनाओं वह गुणों का अध्ययन किया जाता है|
3 यह भी दिया अचेतन मन को समझने का एक मात्र साधन है|
4 इनकी स्थिति संदिग्ध होती हैं इसीलिए व्यक्ति को अनुमान लगाने का अवसर नहीं मिल पाता|
5 इनका प्रयोग सामान्य तथा असामान्य दोनों भारती के व्यक्तियों के लिए उपयुक्त हैं|

प्रक्षेपी विधियों के दोष

1 प्रक्षेपी वीधियो का मानवीकरण एवं रचनाएं एक दुर्लभ कार्य है|
2 इस तरह के परीक्षणों में समय व धन अधिक खर्च होता है|
3 इन वीडियो का प्रशासन, गण एवं ए या साधारण मनोवैज्ञानिक द्वारा संभव नहीं हो पाता है|
4 इन प्रविधियों का संबंध मुख्य रूप से व्यक्ति के अचेतन पक्ष से ही रहता है जबकि व्यक्तित्व चेतन तथा अचेतन

रत्येक कक्षा के छात्रों को एक वर्ष में शिक्षा का एक निश्चित कार्यक्रम पूरा करना पड़ता हैं l जो छात्र उसे पूरा कर लेते हैं, उनको सामान्य छात्र तथा पूरा नहीं कर पाते उन्हें मन्द-बुद्धि छात्रों की संज्ञा दी जाती हैं l विधालयों में यह धारणा बहुत लम्बे समय से चली आ रही हैं और अब भी हैं l”

पोलक व पोलक - “मन्द-बुद्धि बालक को अब क्षीण-बुद्धि बालकों के समूह में नही रखा जाता हैं, जिनके लिए कुछ भी नही किया जा सकता हैं l अब हम यह स्वीकार करते हैं कि उनके व्यक्तित्व के उतने ही विभिन्न पहलू होते हैं जितने सामान्य बालकों के व्यक्तित्व के होते हैं l”

मन्द-बुद्धि बालकों की विशेषताऐं (Characteristics Of Mentally Retarded Childs)

क्रो एंव क्रो के अनुसार

विधालय में असफलताओं के कारण निराशा l
दूसरों को मित्र बनाने की अधिक इच्छा l
दूसरों के द्वारा मित्र बनाये जाने की कम इच्छा
संवेगात्मक और सामाजिक असमायोजन l

फ्रैंडसन के अनुसार


आत्म-विश्वास का अभाव l विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार के व्यवहार l जैसे - प्रेम, भय, मौन, चिन्ता, विरोध, पृथकता या आक्रमण पर आधारित व्यवहार l 50 से 70 या 75 तक बुद्धि-लब्धि l

स्किनर के अनुसार


व्यक्तियों और घटनाओं के प्रति ठोस और विशिष्ट प्रतिक्रियाऐं l
किसी बात का निर्णय करने में परिस्थितियों की अवहेलना l
दूसरों की तनिक भी चिन्ता न करने के बजाय केवल अपनी चिन्ता l
कार्य और कारण के सम्बन्ध में ऊटपटाँग धारणाऐं l
सीखी हुई बात को नई परिस्थिति में प्रयोग करने में कठिनाई l
मान्यताओं के सम्बन्ध में अटल विश्वास l

मानसिक विमंदित बालकों के लिए मंगोलिज्म शब्द का प्रयोग किया जाता हैं तथा सर्वप्रथम इस प्रकार के बालकों की पहचान 1913 ई. में इंग्लैण्ड़ की गई l

मन्द-बुद्धि बालकों का शिक्षक (Teacher Of Mentally Retarded Childs)

मन्द-बुद्धि या पिछड़े बालकों को शिक्षा देने वाले अध्यापक में निम्नलिखित गुण या विशेषताऐं होनी चाहिएे -

शिक्षक को बालकों में संवेगात्मक, सन्तुलन और सामाजिक समायोजन के गुणों का विकास करना चाहिऐ l
शिक्षक को बालकों की सहायता, परामर्श और निर्देशन देने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिऐ l
शिक्षक को बालकों को एक या दो हस्तशिल्पों की शिक्षा देने में कुशल होना चाहिऐ l
शिक्षक को बालकों की आवश्यकताओं का अध्ययन करके, उनको पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिऐ l
शिक्षक को बालकों के स्वास्थ्य, समस्याओं और सामाजिक दशाओं के प्रति व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिऐ l
शिक्षक को अपने शिक्षण को रोचक बनाने के लिऐ सभी प्रकार के उपयुक्त उपकरणों का प्रयोग करना चाहिऐ l
शिक्षक को बालकों को दी जाने वाली शिक्षा का उनके वास्तविक जीवन से सम्बन्ध स्थापित करना चाहिऐl
शिक्षक को धीमी गति से पढ़ाना चाहिऐ और पढ़ाये हुये पाठ को बार-बार दोहराना चाहिऐ l
शिक्षक को बालकों का सम्मान करना चाहिए|
शिक्षक में धैर्य और संकल्प के गुण होने चाहिऐ तकि वह बालकों की मन्द प्रगति से हतोत्साहित न हो पाये l
शिक्षक में बालकों के प्रति प्रेम, सहानुभूति और सहनशीलता का व्यवहार करने का गुण होना चाहिऐ l
शिक्षक को स्वयं शारीरिक श्रम को महत्व देना चाहिए और बालकों को उसे महत्व देने की शिक्षा देनी चाहिऐl

मन्द-बुद्धि बालकों की शिक्षा (Education Of Mentally Retarded Child)

मन्द-बुद्धि बालक की शिक्षा का वही स्वरूप होना चाहिऐ, जो पिछड़े बालक की शिक्षा का हैं l

कार्यक्रम

स्किनर के अनुसार अमरीका में मन्द-बुद्धि बालकों के लिऐ तीन विशेष कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये हैं -

आर्थिक प्रशिक्षण
सामाजिक प्रशिक्षण
अपनी देखभाल का प्रशिक्षण

पाठ्यक्रम

स्किनर के अनुसार अमरीका के Illinois राज्य में मन्द-बुद्धि बालकों के लिए उनके जीवन की समस्याओं के आधार पर निम्न प्रकार के पाठ्यक्रम तैयार किये गऐ -

विभिन्न पहलुओं का मूल्य आँकने की शिक्षा |
शारीरिक और मानसिक स्वास्थय की शिक्षा l
सुरक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और आचरण सम्बन्धी नियमों की शिक्षा l
स्थानीय यात्राओं को कुशलता से करने की शिक्षा l
निष्क्रिय और सक्रिय मनोरंजन की शिक्षा l
सुनने, निरीक्षण करने, बोलने और लिखने की शिक्षा l
धन, समय और वस्तुओं का उचित प्रबन्ध करने की शिक्षा l
कार्य, उत्तरदायित्व एवं साथियों और निरीक्षकों से मिलकर रहने की शिक्षा l
मान्यताओं और विवेकपूर्ण नियमों की शिक्षा l
पौष्टिक भोजन, सफाई और आराम की आदतों के साथ-साथ वास्तविक आत्म-मूल्यांकन की शिक्षा l

व्यक्तिगत शिक्षण व छात्र संख्या

फ्रैंडसन के अनुसार मन्द-बुद्धि बालकों को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता हैं l अत: कक्षा में छात्रों की संख्या 12 से 15 तक होनी चाहिऐ l

विशिष्ट कक्षाऐं

फ्रैंडसन के अनुसार मन्द-बुद्धि बालक अपनी सीमित योजनाओं के कारण सामान्य कक्षाओं में ज्ञान का अर्जन नहीं कर पाते हैं l ये कक्षाऐं उनमें सामाजिक असमायोजन का दोष भी उत्पन्न कर देती हैं l अत: उनको विशेष

रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा विशिष्ट कक्षाओं में शिक्षा देनी चाहिऐं l

शिक्षा के उद्देश्य

फ्रैंडसन के अनुसार मन्द-बुद्धि बालकों की शिक्षा के निम्नांकित उद्देश्य होने चाहिऐ -
स्वस्थ आदतों का निर्माण करना l
जन्मजात व्यक्तियों का विकास करना l
शारीरिक स्वास्थ्य की उन्नति करना l
दैनिक जीवन में वैयक्तिक, सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना |
स्वतंत्रता और आत्मविश्वास की भावनाओं का विकास करना l


समस्यात्मक बालक (Problematic Child)

समस्यात्मक बालक उस बालक को कहते हैं, जिसके व्यवहार में कोई ऐसी असामान्य बात होती हैं, जिसके कारण वह समस्या बन जाता हैं l जैसे - चोरी करना, झूठ बोलना आदि|

समस्यात्मक बालक का अर्थ -वेलेन्टाइन - “ समस्यात्मक शब्द का प्रयोग साधारणत: उन बालकों का वर्णन करने के लिए किया जाता हैं, जिनका व्यवहार या व्यक्तित्व किसी बात में गम्भीर रूप से असामान्य होता हैं|”

समस्यात्मक बालकों के प्रकार (Types Of Problem Children)

चोरी करने वाले
झूठ बोलने वाले
क्रोध करने वाले
एकान्त पसन्द करने वाले
मित्र बनाना पसन्द न करने वाले
आक्रमणकारी व्यवहार करने वाले
विधालय से भाग जाने वाले
भयभीत रहने वाले
छोटे बालकों को तंग करने वाले
कक्षा में देर से आने वाले

चोरी करने बाला बालक (Boy Who Steals)

चोरी करने के कारण

अन्य विधि से अपरिचित
साहस दिखाने की भावना
अज्ञानता
चोरी की लत
आवश्यकताओं की अपूर्ति l

माता-पिता की अवहेलना
उच्च स्थिती की इच्छा
आत्म-नियंत्रण का अभाव

उपचार (Treatment)

बालक में आत्म-नियन्त्रण की भावना का विकास करना चाहिऐ l
बालक को विधालय में व्यय करने के लिए कुछ धन अवश्य देना चाहिऐ l
बालक पर चोरी का दोष कभी नहीं लगाना चाहिऐ l
बालक की उसके माता-पिता द्वारा अवहेलना नहीं की जानी चाहिऐ l
बालक की सभी उचित आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिऐ l
बालक को अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का सम्मान करने की शिक्षा देनी चाहिऐ l
बालक को उचित और अनुचित कार्यों में अन्तर बताना चाहिऐ l

झूठ बोलने वाला बालक (Boy Who Tells Lies)



झूठ बोलने के कारण

मनोविनोद
दूविधा
वफादारी
प्रतिशोध
मिथ्याभिमान
भय
स्वार्थ

उपचार (Treatment)

बालक को यह बताना चाहिऐ कि झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं होता हैं l
बालक में नैतिक साहस की भावना का अधिकतम विकास करने का प्रयत्न करना चाहिऐ|
बालक में सोच-विचार कर बोलने की आदत का निर्माण करना चाहिऐ l
बालक से बात न करके, उसकी अवहेलना करके और उसके प्रति उदासीन रहकर उसे अप्रत्यक्ष दण्ड़ देना चाहिऐ l
बालक को ऐसी संगति और वातावरण में रखना चाहिऐ, जिससे झूठ बोलने का अवसर न मिले l
बालक से उसका अपराध स्वीकार करवाकर उससे फिर कभी झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा करवानी चाहिऐ l
सत्य बोलने वाले बालक की निर्भयता और नैतिक साहस की प्रशंसा करनी चाहिऐ|

क्रोध करने वाले बालक (Boy Who Expresses Anger)

क्रोध व आक्रमणकारी व्यवहार साधारणत: क्रोध और आक्रमणकारी व्यवहार का साथ होता हैं l
क्रो एवं क्रो - "क्रोध आक्रमणकारी व्यवहार द्वारा व्यक्त किया जाता हैं l"
क्रुद्ध बालक के आक्रमणकारी व्यवहार के मुख्य स्वरूप हैं - मारना, काटना, नोचना, चिल्लाना, खरोंचना, तोड़-फोड़ करना, वस्तुओं को इधर-उधर फेंकना, गाली देना, व्यंग्य करना, स्वयं अपने शरीर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाना आदि|

क्रोध आने के कारण (Causes Of Anger)

बालक का अस्वस्थ या रोगग्रस्त होना l
बालक में किसी के प्रति ईर्ष्या होना l
बालक के खेल, कार्य या इच्छा में बाधा पड़ना|
बालक को किसी विशेष स्थान पर जाने से रोकना l
बालक की किसी वस्तु का छीन लिया जाना l
बालक का किसी बात में निराश होना l
बालक के कार्य, व्यवहार आदि में निरन्तर दोष निकाला जाना l
बालक का किसी कार्य को करने में असमर्थ होना l
बालक के किसी उद्देश्य की प्राप्ति में बाधा पड़ना l
बालक पर अपने माता या पिता के क्रोधी स्वभाव का प्रभाव पड़ना|

उपचार (Treatment)

बालक के रोग का उपचार और स्वास्थ्य में सुधार करना चाहिऐ l
बालक को अपने क्रोध पर नियन्त्रण करने की सलाह देनी चाहिऐ l
बालक को केवल अनुचित बातों के प्रति क्रोध व्यक्त करने का परामर्श देना चाहिऐ l
बालक के क्रोध को व्यक्त करके नहीं वरन् शान्ति से शान्त करना चाहिऐ l
बालक के खेल, कार्य आदि में बिना आवश्यकता के बाधा नहीं डालनी चाहिऐ l
जब बालक का क्रोध शान्त हो जाऐ, तब उससे तर्क करके उसे यह विश्वास दिलाना चाहिऐ कि उसका क्रोध अनुचित था|
बालक के कार्य, व्यवहार आदि में अकारण दोष नहीं निकालना चाहिऐ l
बालक की ईर्ष्या की भावना को सहयोग की भावना में बदलने का प्रयास करना चाहिऐ l
बालक के क्रोध को दण्ड़ और कठोरता का प्रयोग करके दमन नहीं करना चाहिऐ, क्योंकि ऐसा करने से उसका क्रोध और बढ़ता हैं |
बालक को जिस बात पर क्रोध आए, उस पर से उसके ध्यान को हटा देना चाहिऐ l

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महाभारत सामान्य ज्ञान

महाभारत सामान्य ज्ञान उत्तर सहित No.-1. महाभारत का मूल नाम क्या है? – जय संहिता। No.-2. महाभारत का युद्ध कहाँ हुआ? – कुरुक्षेत्र। No.-3. महाभारत का युद्ध कितने दिनों तक चला था? – 18 दिन No.-4. महाभारत का वास्तविक नाम क्या है? – जयसंहिता। No.-5. महाभारत किस वर्ग में आता है? – स्मृति No.-6. महाभारत के अध्यायों को क्या कहते हैं? – पर्व। No.-7. महाभारत के पर्वो (अध्याय) की संख्या कितनी है? – 18 पर्व No.-8. महाभारत के युद्ध का धृतराष्ट्र को वर्णन किसने किया? – संजय। No.-9. महाभारत के युद्ध का मुख्य कारण क्या था? – द्रौपदी के केश No.-10. महाभारत के रचयिता का क्या नाम है? – वेद व्यास। No.-11. महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास के पिता कौन थे? – पराशर No.-12. महाभारत के लेखन का कार्य किसने किया? – गणेश जी ने। No.-13. महाभारत को अन्य किन नामों से जाना जाता है? – जय, भारत No.-14. महाभारत में कितने अक्षौहिणी सेना समाप्त हुई? – 18 No.-15. महाभारत में कीचक वध किस पर्व के अंतर्गत आता है? – विराट पर्व No.-16. महाभारत में कृष्ण की सेना किसकी ओर से लड़ी? – कौरवों की ओर से No.-17. महाभारत में कौ

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